श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित एवं विकल भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥
श्रीमद् भगवद् गीता3/35॥
श्रीमद् भगवद् गीता3/35॥
Better is one's own duty, though devoid of merit , than the duty of another well discharged. Better is death in one's own duty. The duty ( Dharma) of another is fraught with fear.
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥
भावार्थ : - अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता॥
श्रीमद् भगवद् गीता 18/47॥
Better is one's own duty ( Dharma) though destitute of merits, than the duty ( Dharma) of another well performed. He who does the duty ordained by his own nature in cures no sin.
श्रीमद् भगवद् गीता- 6/11& 12
श्रीमद् भगवद् गीता 18/47॥
Better is one's own duty ( Dharma) though destitute of merits, than the duty ( Dharma) of another well performed. He who does the duty ordained by his own nature in cures no sin.
श्रीमद् भगवद् गीता- 6/11& 12
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥
भावार्थ :- शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके॥11॥
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥
भावार्थ :- उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे॥12॥