अर्चिरादि मार्ग



प्राणियों केलिए वर्त्तमान शरीर को त्याग कर इस लोक से परलोक में जाने के, वेदों में  दो मार्ग बताये गये  हैं - एक देवयान और दूसरा पितृयान।  देवयान मार्ग शुक्ल और दीप्तिमय हैं तो , पितृयान कृष्ण और  अन्धकारमय हैं।  इसीका गीता में भी प्रतिपादन किया गया हैं :-
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥ ८.२६ ॥

क्योंकि शुक्ल और कृष्ण – ये दोनों गतियाँ अनादिकालसे जगत् – (प्राणिमात्र) के साथ (सम्बन्ध रखनेवाली) मानी गयी हैं । इनमें से एक गति में जानेवाले को लौटना नहीं पड़ता और दूसरी गति में जानेवाले को पुनः लौटना पड़ता है । (८.२६)
शुक्ल अधवा देवयान को अनावृत्ति ( मुक्ति) मार्ग और कृष्ण ( पितृयान )को पुनरावृत्ति मार्ग बताया गया हैं।  इस मुक्ति मार्ग को ही अर्चिरादि मार्ग कहते हैं।  अर्चि अग्नि को कहते हैं जो प्रकाश कारक हैं।  
अर्चिरहः सितः पक्ष उत्तरायण वत्सरो। 
मरुद्रवीन्दवो विद्युद्वरुणेंद्र चतुर्मुखाः। ।
एते द्वादश धीराणां परधामा वाहिकाः। 
वैकुण्ठ प्रापिका विद्युद्वरुणा देस्त्वनुग्रहे।। 
 ब्रह्मज्ञानी मुक्त जन अर्चिरादि मार्ग द्वारा परमधाम जाते हैं।  इस मार्ग में अग्निलोक , अहलोक , शुक्लपक्षलोक , उत्तरायण लोक , संवत्सर लोक , वायुलोक , सूर्य लोक , चन्द्र लोक , विद्युत् लोक , वरुण लोक , और ब्रह्म लोक मिलते हैं। 
भगवान् का परमप्रिय भक्त , देह त्याग के पश्चात पहले अग्नि लोक को जाते हैं।  अग्नि लोक का देवता अपने लोक का मार्गदर्शक बनकर उन्हें अहलोक तक पहुँचा देता हैं।  अहलोक का देवता उन्हें अपने लोक का मार्ग दिखाते हुए, उत्तरायण लोक तक पहुँचा कर लौट आता हैं।  उत्तरायण लोक - देव उसे संवत्सर लोक तक पहुँचा देता हैं।  इस तरह ऊपर लिखे बारह लोकोंके अधीशोने अपने अपने लोकसे, दुसरे लोक तक मुक्तात्मा को पहुँचाकर लौट आते हैं :- इसी को अर्चिरादि मार्ग कहते हैं।  

अग्निर्ज्योतिरः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्। 
तत्र प्रयाता गछन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ८ /२४ 
जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि अभिमानी देवता हैं , दिनका अभिमानी देवता हैं , शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता हैं और उत्तरायण लोक के छः अभिमानि देवता है , उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मज्ञानि मुक्तजन अर्युक्त देवताओं द्वारा क्रमसे ले जाए जाकर र्ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। 
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शश्वते मते। 
एकया यान्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः। ८ /२६ 
अर्जुन। .! इस प्रकार जगत के ये दो प्रकारके शुक्ल और कृष्ण ९ देवयान और पितृयान ) मार्ग जानने  वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता।  इसलिए पार्थ तू सब काल में योग से युक्त हो - निरंतर मेरी प्राप्ति केलिए मुझसे जुड़ा रह। 
अर्चिरादिगतानां हि वैष्णवानां हरिः  स्वयम्। 
गतिः स्मृत्या विनिर्दिष्टा श्रुत्या चापि द्विजोत्तम।। 
निहैतुककृपा दृष्ट्या यमेवेक्षेत माधवः।
स एव निर्गुणे मार्गे परमैकांतिनां मुने।।
विना भागवतीं दीक्षां विनैकाँन्त निषेवणम्। 
नाधिकारो महाभाग   परमैकांतिनां पथि।।
अर्चि मार्ग से जाने वाले भगवान का अनन्य भक्त की गति साक्षात् नारायण ही होते हैं।  जिस पर भगवान कि निहैतुक कृपा होती हैं , वहीं  वैष्णव इसी गुणातीत अर्चि मार्ग से जाता हैं।  वैष्णव धर्म परायण होकर अनन्य भावसे भागवत सेवा किये बिना कोई भी इस मार्ग का अधिकारी नहीं बनता।  
एतद्  यो न विजानाति मार्गद्वितयमात्मवान्। 
दंतशूकः पतंगों व भवेत्कीटोഽथ व कृमिः।।
याज्ञवल्क्य संहिता - स्मृति ३ /१२ ७ 

"जो व्यक्ति अर्चि और धूम मार्ग का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सका हैं , वह सर्प , पतंग , कीट , या कृमि अदि योनि में भ्रमता रहेगा सदा  । "

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