सत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न चात्मनः।
सत्त्वेनान्यतमो हन्यात् सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि।।
सत्त्वाद धर्मो भवेद् वृद्धत्त् पुंसो मद्भक्तिलक्षणः।
सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्मः प्रवर्तते।।
धर्मो रजस्तमो हन्यात् सत्त्ववृद्धिनुत्तमः।
आशु नश्यति तन्मूलो ह्यधर्म उभये हते।।
आगमो/पः प्रजा देशः कालः कर्मा च जन्म च।
ध्यानं मंत्रोअथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः।।
तत्तत् सात्त्विकमेवैषां यद यद वृद्धा प्रचक्षते।
निन्दन्ति तामसं तत्तद राजसं तदुपेक्षितम्।।
सात्त्विकान्येव सेवेत पुमान् सत्त्वविवृद्धये।।
ततो धर्मस्ततो ज्ञान यावत् स्मृतिरपोहनम्।
वेणुसंघर्षजो वह्निर्दग्ध्वा शाम्यति तद्वनम्।।
एवं गुणव्यत्ययजो देहः शाम्यति तत्क्रियः।।
सत्त्वेनान्यतमो हन्यात् सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि।।
सत्त्वाद धर्मो भवेद् वृद्धत्त् पुंसो मद्भक्तिलक्षणः।
सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्मः प्रवर्तते।।
धर्मो रजस्तमो हन्यात् सत्त्ववृद्धिनुत्तमः।
आशु नश्यति तन्मूलो ह्यधर्म उभये हते।।
आगमो/पः प्रजा देशः कालः कर्मा च जन्म च।
ध्यानं मंत्रोअथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः।।
तत्तत् सात्त्विकमेवैषां यद यद वृद्धा प्रचक्षते।
निन्दन्ति तामसं तत्तद राजसं तदुपेक्षितम्।।
सात्त्विकान्येव सेवेत पुमान् सत्त्वविवृद्धये।।
ततो धर्मस्ततो ज्ञान यावत् स्मृतिरपोहनम्।
वेणुसंघर्षजो वह्निर्दग्ध्वा शाम्यति तद्वनम्।।
एवं गुणव्यत्ययजो देहः शाम्यति तत्क्रियः।।
श्रीमद् भागवतं -११ /
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा :- प्रिय उद्धव :- सत्व ,रज ,तम - ये तीनों बुद्धि के गुण हैं , आत्मा के नहीं। सत्व के द्वारा रज और तम -इन दो दुणों पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिए। तदनन्तर सत्वगुण की शांत वृत्ति के द्वारा उसकी दया आदि वृत्तियों को भी शांत कर देना चाहिए। जब सत्त्वगुण के वृद्धि होती हैं , तभी जीव को मेरे भक्तिरूप स्वधर्म की प्राप्ति होती हैं। निरंतर सात्विक वस्तुवोंका सेवन करने से ही सत्त्वगुण की वृत्ति होती हैं,और तब मेरे भक्तिरूप स्वधर्म में प्रवृत्ति होने लगती हैं। जिस धर्म के पालनसे सत्त्वगुण की वृत्ति हो , वही सबसे श्रेष्ठ हैं। वह धर्म रजोगुण और तमोगुण को नष्ट कर देता हैं। जब वे दोनों नष्ट हो जाते हैं ,तब उन्ही के कारण होनेवाला अधर्म भी शीघ्र ही मिट जाता हैं। शास्त्र ,जल ,प्रजाजन , देश , समय , कर्म , जन्म , ध्यान ,मंत्र और संस्कार -यह दस वस्तुएं यदिं सात्त्विक हो तो सत्त्वगुण की - राजसिक हो तो रजोगुण की , तामसिक हो तो तमोगुण की वृद्धि करती हैं। जिन में से शास्त्रज्ञ महात्मा जिनकी प्रशंसा करते हैं , वे सात्त्विक हैं ; जिनकी निंदा करते हैं वे तामसिक हैं ,और जिनकी उपेक्षा करते हैं , वे वस्तुएं राजसिक हैं। अपने आत्मा का साक्षात्कार तथा स्थूल-सूक्ष्म शरीर और उनके कारण तीनों गुणोंकी सत्त्वगुण की वृद्धि केलिए, सात्विक शास्त्र आदि का ही सेवन करें ; क्योंकि उससे धर्म की वृद्धि होती हैं और धर्म के वृद्धि से अन्तःकरण शुद्ध होकर आत्मतत्त्व का ज्ञान होता हैं। बासों की रगड़ से आग पैदा होती हैं और वह उनके सारे वन को जलाकर शांत हो जाती हैं। वैसे ही यह शरीर गुणों के वैषम्य से उत्पन्न हुआ हैं। विचार द्वारा मन्थन करने पर इससे ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती हैं वह समस्त शरीरों एवं गुणोंको भस्म करके स्वयं भी शांत हो जाती हैं।
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