गुरुस्तीर्थ परम् ज्ञानमतस्तीर्थ न विद्यते I
ज्ञानतीर्थ परम् तीर्थ ब्रह्मतीर्थ सनातनम् I I
गुरु रूपी तीर्थ से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होत हैं , इसलिये उससे
बढकर कोई तीर्थ नही हैं I ज्ञानतीर्थ सर्वश्रेष्ठ तीर्थ हैं और ब्रह्मतीर्थ सनातन हैं I "कुर्वतः पुण्यकर्माणि सेवां यः कुरुते नरः I
पत्नीभृतकशिष्येभ्यो यदन्यः कोഽपि मानवः I I
तस्य सेवानुरूपेण द्रव्यं किंचिन्न दीयते I
सोഽपि सेवारूपेण तत्पुन्यफलभाग् भवेत् I"
(पद्मपुराण् -उत्तर -११२ /१८ /२१)
पत्नी , नौकर अथवा ' शिष्य ' को छोड़कर , अगर
दूसरा कोई मनुष्य , किसी पुण्यशाली पुरुष की सेवा करता हैं , और उस सेवा के अनुरूप , उसे कुछ 'द्रव्य ' नहीं
दिया जाता हैं( निस्स्वार्थ सेवा ) , तो वह सेवक भी सेवा के अनुसार सेव्यक के पुण्यफल का भागीदार हो जाता हैं।।।। I
सर्वपातकमुक्तो हि लभेत् स परमां गतिम् I
यस्य दीक्षा शिवे नास्ति जीवनान्तं च जन्मिनः I I
दीक्षित साधक सबी पातक से मुक्त होकर परम् गति को प्राप्त होत हैं I जिसने दीक्षा णाःईण् लिया होत हैं उसक जन्म व्यर्थ होत हैं I
क्रोरा मध्ये स्थितो नित्यमेक वारं
समाचरेत् ,
योजनान्तः स्थितः शिष्यो वर्षे वार त्रयं नमेत् I
गुरुस्थान के निकट रहते शिष्य ( एक कोस कि दूरी पर ), उसे प्रत्येक दिन एक बार अपने गुरु महाराज को जाकर प्रणाम करना चाहिये I जो शिष्य गुरुजी से बहुत दूर रहता हो , तो भी उसे साल मे तीन बार और तो एक बार अवश्य अपनी गुरुदेव को जा कर प्रणाम करना चाहिये I
देवी पूजा गुरोः पूजा तृप्तिश्च गुरु तार्निम्
,
गुरोः पादाब्जयोरादौदघात् पुष्पाञ्जलि त्रयं I
शिष्य को यह समझना चाहिए कि गुरु पूजा करने से इष्ट देवता का पूजा हो जाता हैं I गुरु तर्पण और गुरु भक्ति से इष्टदेवता क पूजन और तर्पण हो जाता हैं I गुरु वन्दना से सर्व देवी देवताओंके स्तुति संपन्न हो जाती हैं I "नष्टाय च महादेवि मलिनाय न दाययेत्
गुरु भक्ति विहीनाय क्रोध लोभ रतात्मने I"
महादेवि ..!, गुरु-भक्ति रहित, मलिन बुधि तथा दुराचारी और काम, क्रोध लोभादि ग्रस्त व्यक्ति के समक्ष इन गोपनीय रहसयों को स्पष्ट कभी नहीं करना चाहिए।।।
शिष्य और गुरु के बीच थोड़ी भी दूरी न हो I शिष्य गुरुसे इतना निकट होना चाहिए कि मुख से गुरु मन्त्र और गुरु नाम का उचारण करना ही न पड़े I सोते जागते चलते फिरते, हमेशा शिष्य के मुख से गुरुमन्त्र उचारित होता ही रहे जैसे
राधाजी के मुखसे कृष्ण।।। कृष्ण ..
शिष्य को हमेशा यह एहसास रहे कि सद्गुरु ही उसके माध्यमसे काम कर रहा हैं , गुरूजी ही सब काम करवा रहा हैं I शिष्य स्वयं कुछ भी नहीं करता I
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