दो :-भनिति मोरी सबगुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक।
कबि न होऊँ नहीं बचन प्रबीनु।
सकल कला सब बिद्या हीनु।।
अखर अरध अलंकृति नाना।
छंद प्रबंध अनेक बिधाना।।
भाव भेद रस भेद अपारा।
कबिद दोष गुन बिबिध प्रकारा।।
कबिद बिबेक एक नहिं मोरें।।
सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें।।
छमिहहि वो सज्जन मोरि ढिठाई।
सुनिहहिं बालबचन मन लाई।।
जौ बालक कह तोतरी बाता।
सुनहि मुदित मन पितु अरु माता।।
हसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी।
जे परदूषन भूषनधारी।।
खल परिहास होई हित मोरा।
काक कहहिं कलकंठ कठोरा।।
भाषा भनिति भोरि मति मोरी।
हसिबे जोग हसे नहिं खोरी।।
गुन अवगुन जानत सब कोई।
जो जेहि भाव नीक तेहि सोई।।
प्रभु पद प्रीति न समुझि नीकी।
तिन्हहि सुनि लागिहि फीकी।।
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