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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
सवधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।
अछी प्रकार आचरण में लाये हुए 'दूसरोंके' धर्म से " गुणरहित " भी "अपना " धर्म अत्युत्तम हैं और दुसरे का धर्म भय को देनेवाले हैं। अपने धर्म में मरना कल्याण कारक हैं।
श्रीमद भगवत गीता :- ३/३५
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मान्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।
श्रीमद भगवत गीता :- १८/४६
अछि तरह आचरण में लाये हुए दुसरे केधर्म से गुणरहित ही अपना धर्मश्रेष्ठ हैं। क्योंकि " स्वभाव ' से नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता।
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